काला फिल्म हिंदी के दर्शकों को चौंकाएगी और परेशान भी करेगी, क्योंकि ऐसी कोई फिल्म हिंदी में कभी बनी ही नहीं है. क्या है इस फिल्म में खास?
Dilip C Mandal Dilip C Mandal Updated On: Jun 14, 2018 10:51 AM IST1
वैसे तो कोई कह सकता है कि फिल्मों का जाति या समाज या विचार से क्या मतलब? टिकट खरीदा, फिल्म देखी, मस्ती की, हॉल से निकल आए. फिल्म खत्म, पैसा हजम! लेकिन क्या फिल्में हमारे लिए सिर्फ यही मतलब रखती हैं? नहीं. फिल्में दरअसल हमें बनाती हैं. हमें रचती हैं. हमारे जीने और सोचने के तरीके में हस्तक्षेप करती हैं. फिल्में ड्रेस सेंस देती हैं. चलने-बोलने की अदाएं सिखाती हैं. प्रेम और विवाह के मायने बताती और बदलती हैं. घरों की साजसज्जा तक पर फिल्मों का असर होता है.
फिल्में पॉपुलर कल्चर का निर्माण करती हैं और कई बार राजनीति से प्रभावित होती हैं और राजनीति को प्रभावित करती हैं. आम तौर पर जो विचार समाज पर हावी है, पॉपुलर फिल्में उसे मजबूत करती हैं और अन्य या विरोधी और विद्रोही विचारों को किनारे लगा देती हैं. सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने में फिल्मों की बड़ी भूमिका होती है.
'काला' का दायरा मनोरंजन से बड़ा
ऐसे में अगर कोई फिल्म किसी जमी-जमाई हुई सोच और प्रभावशाली विचारधारा को चुनौती दे, तो वह फिल्म चौंकाती है. यही काम पा. रंजीत निर्देशित फिल्म ‘काला’ ने किया है. इसलिए इस फिल्म के बारे में जो बात हो रही है, उसका दायरा मनोरंजन से बड़ा है. यह फिल्म चार सौ करोड़ का कुल बिजनेस करने की और बढ़ रही है, फिल्म में रजनीकांत हैं, उनका स्टाइल है, रोमांस हैं, नाच-गाना है लेकिन ज्यादा बात इस पर हो रही है कि काला फिल्म ने समाज के किस अनछुए पहलू को सामने रख दिया.
काला फिल्म इसलिए स्पेशल है क्योंकि इसने भारतीय समाज के सबसे विवादित पहलू- जाति- को दलित नजरिए से छेड़ दिया है. यह फिल्म और बहुत कुछ करते हुए दलित सौंदर्यशास्त्र यानी एस्थेटिक्स को रचती है और उसे वर्चस्व की संस्कृति के मुकाबले खड़ा कर देती है. इसलिए यह एक यूनीक फिल्म है. हिंदी के दर्शकों को तो यह फिल्म बुरी तरह चौंकाएगी और परेशान भी करेगी, क्योंकि ऐसी या मिलती-जुलती कोई फिल्म हिंदी में अब तक बनी नहीं है.
इस फिल्म का सब्जेक्ट मैटर वंचित समाज है. दलित और आदिवासी यानी एससी-एसटी इस देश की एक चौथाई आबादी हैं. यानी हममें से हर चौथा आदमी दलित, जिन्हें पहले अछूत कहा जाता था, या आदिवासी है. जनगणना के मुताबिक ये लगभग 30 करोड़ की विशाल आबादी है. भारत में किसी सिनेमा हॉल का भरना या न भरना इन पर भी निर्भर है. ये लोग भी टिकट खरीदते हैं. फिल्में देखते हैं. लेकिन ये लोग फिल्मों में अक्सर नहीं दिखते. लीड रोल में शायद ही कभी आते हैं. ये लोग फिल्में बनाते भी नहीं हैं. इनकी कहानियां भी फिल्मों में नजर नहीं आती. खासकर, हिंदी फिल्म उद्योग में तो ऐसा ही होता है.
हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा से दलित गायब
वैसे, हिंदी फिल्मों में दलित कभी कभार दिख जाते हैं. अछूत कन्या और सुजाता जैसी दसेक साल में कभी-कभार कोई फिल्म आ जाती है, जिसमें दलित पात्र होता है, जो अक्सर बेहद लाचार होता है और जिसका भला कोई गैर-दलित हीरो करता है. भारत के लोकप्रिय सिनेमा में आखिरी चर्चित दलित पात्र आमिर खान की फिल्म लगान में नजर आया. उसका नाम था कचरा. वह अछूत है. उसमें अपना कोई गुण नहीं है. उसे पोलियो है और इस वजह से उसकी टेढ़ी उंगलियां अपने आप स्पिन बॉलिंग कर लेती हैं. उसकी प्रतिभा को एक गैर-दलित भुवन पहचानता है और उसे मौका देकर उस पर एहसान करता है.
इसके अलावा आरक्षण फिल्म में सैफ अली खान दलित रोल में नजर आता है. लेकिन उस पर एहसान करने के लिए अमिताभ बच्चन का किरदार फिल्म में है. फिल्म गुड्डू रंगीला में अरशद वारसी को दलित चरित्र के रूप में दिखाया गया है, लेकिन उसकी पहचान साफ नहीं है. मांझी फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने एक दलित का रोल किया है, लेकिन दलित पहचान को फिल्म में छिपा लिया गया है. मसान जैसी ऑफ बीट फिल्मों में दलित हीरो बेशक कभी-कभार नजर आ जाता है, लेकिन मुख्यधारा में उनका अकाल ही है.
ऐसे समय में मूल रूप से तमिल में बनी और हिंदी में डब होकर उत्तर में आई रजनीकांत अभिनीत और पा. रंजीत द्वारा निर्देशित ‘काला’ अलग तरह की दुनिया रचती है.
काला पहली नजर में एक मसाला फिल्म लग सकती है. इसमें रजनीकांत हैं. ग्लैमर के लिए हुमा कुरैशी है. इसमें बुराई पर अच्छाई की जीत का फार्मूला है. नाच-गाना और मारधाड़ है. एक्शन सीन हैं. लेकिन अपने मिजाज में यह एक राजनीतिक-सामाजिक वक्तव्य भी है. फिल्म का रिव्यू आप इस लिंक को क्लिक करके पढ़ सकते हैं.
फिल्म में काला या करिकालन बने रजनीकांत की जाति कहीं बताई नहीं गई है, लेकिन उसे छिपाया भी नहीं गया है. जिस सीन में रजनीकांत की एंट्री होती है, वहां गली क्रिकेट का खेल चल रहा होता है और बैकग्राउंड में महात्मा बुद्ध और ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब आंबेडकर के पोस्टर लगे होते हैं. काला के घर में बुद्ध की प्रतिमा नजर आती है. काला अपनी बैठक बुद्ध विहार में करता है.
काला का समर्थक पुलिस हवलदार एक जगह भाषण देता है और अंत में आंबेडकरवादियों में प्रचलित अभिवादन ‘जय भीम’ बोलता है. ऐसे प्रतीक पूरी फिल्म में जिस तरह से बिखरे पड़े हैं, उसे देखकर यही लगता है कि निर्देशक पा. रंजीत अपने जीवन की आखिरी फिल्म बना रहे हों और अपने विचार और सोच को हर फ्रेम में चिपका देना चाहते हों.
फिल्म में आखिर में परदे पर जो रंग बिखरते हैं, उनमें दलित जागृति का रंग नीला बहुत प्रमुखता से आता है. फिल्म के डायलॉग में भी लगातार यह बात नजर आती है और वंचितों की आवाज को लगातार स्वर मिलता है. फिल्म में रैपर्स का एक ग्रुप है, जो बीच-बीच में रैप गाता है. यह अमेरिका के ब्लैक रैपर्स की याद ताजा कराता है.
फिल्म में जो विलेन का पक्ष है, वहां भी पा. रंजीत अपने प्रतीक सावधानी से चुनते हैं. जो बिल्डर गरीबों और दलितों की जमीन छीन लेना चाहता है, उसका नाम मनु बिल्डर रखकर रंजीत बारीकी से अपनी बात कह जाते हैं. फिल्म में दो विलेन हैं. मुख्य विलेन बने नाना पाटेकर का नाम हरिनाथ अभ्यंकर है जबकि उनके गुर्गे का नाम विष्णु है. दोनों को गोरा दिखाया गया है. दोनों सफेद कपड़े पहनते हैं, जबकि काला तो काली ड्रेस ही पहनता है. अभ्यंकर जब काला के घर आता है तो उसके घर का पानी पीने से मना कर देता है. काला की पत्नी इस बात को बोलती भी है. लेकिन काला जब अभ्यंकर के घर जाता है तो न सिर्फ उसके घर का पानी पीता है, बल्कि अभ्यंकर की पोती को पैर छूने से रोक देता है. अभ्यंकर को पैर छुआने का शौक है, तो काला को अपने स्वाभिमान को बचाने का.
भारतीय समाज की सच्चाई जातिवाद से रूबरू कराती है फिल्म
फिल्म के आखिरी दृश्यों में जब अभ्यंकर के गुंडे काला को मारने के अभियान पर निकलते हैं तो अभ्यंकर के घर में रामकथा का पाठ हो रहा होता है. रामकथा में रावण वध की तैयारी होती है तो दूसरी और काला की हत्या की कोशिशें. रामकथा में रावण की हत्या की घोषणा होती है, तभी काला के पीठ पर गोली उतार दी जाती है. लेकिन रावण यानी काला इस फिल्म में सारी सहानुभूति बटोर ले जाता है. और अंत में वह जनता के विभिन्न रूपों में लौट कर आता है और हरि अभ्यंकर को परास्त करता है. रामकथा का यह आख्यान तमिल दर्शकों के लिए जितना सहज है, वैसा हिंदी दर्शकों के लिए नहीं है. इसके बावजूद यह तो पता चल ही जाता है कि निर्देशक कहना क्या चाहता है.
काला फिल्म दरअसल भारतीय समाज की एक सच्चाई –जातिवाद से समाज को रूबरू कराती है और वंचितों के पक्ष में खड़ी होती है. यही काम मराठी फिल्मों में नागराज मंजुले कर चुके हैं. उनकी फिल्म फंड्री और सैराट भी जाति के सवालों से टकराती है और जातिवाद के खिलाफ खड़ी होती है. सैराट मराठी फिल्म इतिहास की अब तक की सबसे कामयाब फिल्म है, जिसने 100 करोड़ रुपए से ज्यादा का बिजनेस किया है. इस फिल्म के न सिर्फ डायरेक्टर, बल्कि लीड एक्टर और एक्ट्रेस भी दलित हैं. यह एक दलित युवक की सवर्ण लड़की से प्रेम की कहानी है, जिसका अंत ऑनर किलिंग में होता है. इस फिल्म का हिंदी रिमेक धड़क रिलीज के लिए तैयार है. इस फिल्म का ट्रेलर रिलीज हो चुका है. हिंदी में बनी धड़क सैराट के बागी स्वरूप को कितना बचा पाती है, यह देखना दिलचस्प होगा.
कोई कह सकता है कि फिल्मों में किसी जाति या समूह का होना या न होना क्यों महत्वपूर्ण है. या कि कलाकार और फिल्मकार की जाति नहीं होती. उसे इस बात से नहीं तौला जाना चाहिए कि उसकी जाति क्या है, बल्कि उसे उसके काम से देखा और परखा जाना चाहिए. यह बात तर्कसंगत लगती है. लेकिन किसी समाज में बन रही फिल्मों में अगर समाज का एक हिस्सा अनुपस्थित है तो इस बारे में सवाल जरूर उठने चाहिए और बात भी होनी चाहिए. इसका यह मतलब कतई नहीं है कि फिल्मों में आरक्षण होना चाहिए. इसका मतलब है कि फिल्मों के दरवाजे हर किसी के लिए और तमाम तरह कि विषयों के लिए खुले होने चाहिए और वातावरण ऐसा होना चाहिए, जिसमें ऐसी फिल्में बनें, जिनमें पूरा भारत दिखे, न कि एक खंडित समाज का एक टुकड़ा.
किसी भी दौर का पॉपुलर सिनेमा एक फैंटसी रचता है, मनोरंजन करता और साथ में अपने समय के कुछ दस्तावेजी सबूत भी साथ लेकर चलता है. किसी भी अच्छी फिल्म का अच्छा होना इस बात से भी स्थापित होता है कि उसमें इन तीन तत्वों का कैसा मेल है. काला इस दृष्टि से एक सफल फिल्म है कि उसने मनोरंजन भी किया और डायरेक्टर ने अगर इसके जरिए कोई संदेश देने की कोशिश की है, तो वह संदेश बहुत जोरदार तरीके से सुनाई देता है. पा. रंजीत ने साबित कर दिया है कि फिल्म अभिनेता का नहीं, निर्देशक का माध्यम है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)